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यदश्वा॑य॒ वास॑ उपस्तृ॒णन्त्य॑धीवा॒सं या हिर॑ण्यान्यस्मै। सं॒दान॒मर्व॑न्तं॒ पड्बी॑शं प्रि॒या दे॒वेष्वा या॑मयन्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad aśvāya vāsa upastṛṇanty adhīvāsaṁ yā hiraṇyāny asmai | saṁdānam arvantam paḍbīśam priyā deveṣv ā yāmayanti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अश्वा॑य। वासः॑। उ॒प॒ऽस्तृ॒णन्ति॑। अ॒धी॒वा॒सम्। या। हिर॑ण्यानि। अ॒स्मै॒। स॒म्ऽदान॑म्। अर्व॑न्तम्। पड्बी॑शम्। प्रि॒या। दे॒वेषु॑। आ। य॒म॒य॒न्ति॒ ॥ १.१६२.१६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:16 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्वान् जन (अस्मै) इस (अश्वाय) अग्नि के लिये (यत्) जिस (वासः) ओढ़ने के वस्त्र को (उपस्तृणन्ति) उठाते वा जिस (अधीवासम्) ऐसे चारजामा आदि को कि जिस के ऊपर ढापने का वस्त्र पड़ता वा (संदानम्) समीचीन जिससे दान बनता उस यज्ञ आदि को (अर्वन्तम्) प्राप्त करते हुए (पड्वीशम्) प्राप्त पदार्थ को बाँटने छिन्न-भिन्न करनेहारे अग्नि को उठाते ढापते कलाघरों में लगाते हैं और उससे (या) जिस (प्रिया) प्रिय मनोहर (हिरण्यानि) प्रकाशमय पदार्थों को (देवेषु) विद्वानों में (आ, यामयन्ति) विस्तारते हैं व उन पदार्थों को पाकर श्रीमान् होते हैं ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बिजुली आदि रूपवाले अग्नि के उपयोग करने और उसको बढ़ाने को जानें तो बहुत सुखों को प्राप्त हों ॥ १६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये विद्वांसोऽस्मा अश्वाय यद्वास उपस्तृणन्ति यमधीवासं संदानमर्वन्तं पड्वीशमुपस्तृणन्ति तेन या प्रिया हिरण्यानि देवेष्वा यामयन्ति ते तानि प्राप्य श्रीमन्तो भवन्ति ॥ १६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) (अश्वाय) अग्नये (वासः) आच्छादनम् (उपस्तृणन्ति) (अधीवासम्) अधि उपरि वास आच्छादने यस्य तम् (या) यानि (हिरण्यानि) ज्योतिर्मयानि (अस्मै) (संदानम्) समीचीनं दानं यस्मात्तम् (अर्वन्तम्) गमयन्तम् (पड्वीशम्) प्राप्तानां पदार्थानां विभाजकम् (प्रिया) प्रियाणि कमनीयानि (देवेषु) विद्वत्सु (आ) (यामयन्ति) ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्या विद्युदादिस्वरूपमग्निमुपयोक्तुं वर्द्धयितुं जानीयुस्तर्हि बहूनि सुखान्याप्नुयुः ॥ १६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्युत इत्यादी स्वरूपाच्या अग्नीचा उपयोग करून त्याची वृद्धी करणे जाणतात ती अत्यंत सुखी होतात. ॥ १६ ॥